परम पूजनीय प्रातः स्मरणीय श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज १९वीं सदी के एक शांत, दान्त, सिद्ध उच्च कोटि के महान संत थे. एक सच्चे अनुभवी, पहुंचे हुए पूरे सतगुरु एवं महान योगी थे. पूज्य पाद एक विलक्षण एवं अद्वितीय प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व के धनि थे, जिनका सानिध्य व संपर्क प्राप्त कर हम धन्य हुए है और परम सौभाग्यशाली बने हैं. श्री स्वामीजी द्वारा प्रदत्त नाम दीक्षा एक रहस्यवाद है, जिसमें स्वामीजी अपनी संकल्प शक्ति से साधक के अंत कारण में राम नाम एक जाग्रत चैतन्य मन्त्र को स्थापित करते हैं. जिस प्रकार बीजारोपण एक विशेष प्रकार से तैयार हुई भूमि में किया जाता है और उसके उपरांत जब देखभाल की जाती है तभी वह अंकुरित होता है और कालान्तर में वृक्ष बनता है. इसी प्रकार श्री स्वामीजी के अनुसार गुरु मार्ग दिखानेवाला होता है, उसका कार्य बीज बोना है.साधक का कर्त्तव्य है, सुद्रिड निश्चय के साथ सतत साधना रत रहना, किन्तु जिस प्रकार अच्चा बीज उल्टा सीधा कैसा भी भूमि में डाल दिया जाये अवश्यमेव अंकुरित होता है. उसी प्रकार सिद्ध जागृत संतो से मिला नाम(मंत्र) अवश्य ही अपना रंग दिखता है. साधक के आचार विचार व व्यवहार के परिवर्तन से इसकी अनुभूति की जा सकती है. श्री स्वामीजी १३ नवम्बर १९६० को भौतिक चोला छोड परम धाम सिधार गए.
श्री स्वामी सत्यानन्द जी के परम सेवक, परम भक्त एवं एक दिव्य मूर्ति श्री प्रेम जी महाराज जन्म - २ अक्टूबर सन् १९२० परम पूज्य प्रातः स्मरणीय श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के अध्यात्मिक उत्तराधिकारी परम भक्त एवं विनम्र सेवक पूजनीय श्री प्रेम जी महाराज बने. आप मन, वचन, कर्म से गुरुदेव की प्रति मूर्ति थे. आपने स्वामीजी की विचारधारा को ज्यूँ का त्यों विशुद्ध बनाये रखा. सर्वथा श्री स्वामीजी महाराज को ही आगे रखा, अपने को सदेव पीछे ही रख कर सेवक भाव बनाये रखा. आप आजीवन ब्रह्मचारी रहे. नौकरी करते हुए श्री स्वामीजी के मिशन को आगे बढ़ाते रहे तथा जनकल्याणार्थ तन-मन-धन से सेवा करते रहे. आप अध्यात्मिक शक्ति से संपन्न थे, इसलिए आपके द्वारा की गई प्रार्थना सार्थक होती थी. आप अपने आवागमन एवं भोजन का पूरा व्यय स्वयं वहन किया करते थे. किसी से कोई भेंट स्वीकार नहीं करते थे. आपकी कथनी करनी एक थी, चुप रहकर व कम बोलकर साधकों को अपने जीवन एवं कार्यशैली से समझा देते थे. आप संकल्प-शक्ति के धनी थे. हज़ारों साधकों ने आपकी कृपा का अनुभव प्राप्त किया है. आपका मुख मंडल इतना तेजस्वी था की कोई भी आपसे दृष्टि नहीं मिला पाता था. आप २९ जुलाई १९९३ को परम धाम सिधार गए.
परम पूजनीय श्री महाराज जी ने आज के दिन २० जुलाई १९९७ (गुरुपूर्णिमा) के पुण्य पर्व पर भगवा चोला धारण किया था (जन्म-१५ मार्च सन् १९४०) परम पूजनीय श्री प्रेम जी महाराज के अन्तरंग शिष्य डॉ. श्री विश्वमित्र जी महाराज ने आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसिज, नई दिल्ली में २२ वर्षों तक गौरव शाली सेवा की. आप एशिया के अकेले ओक्यूलर मिक्रोबिओलोगिस्ट के रूप में विख्यात हुए, प्रभु प्रेम का आकर्षण आपको संसार से बाँध नहीं पाया. आपकी वाणी में विलक्षण तेज, ओज एवं सत्य का प्रभाव है. आपके प्रवचन एवं भजन कीर्तन-गायन से सभी श्रोतागण मुग्ध हों जाते हैं.आपके तप का प्रभाव आपके तेजोमय मुख-मंडल से स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है. आप अपने आवागमन एवं भोजन का पूरा व्यय स्वयं वहन किया करते हैं, तथा किसी से कोई भेंट स्वीकार नहीं करते. आप राम नाम को जीवन का एक मात्र उद्देश्य बनाते हुए पूज्य श्री स्वामीजी महाराज द्वारा स्थापित आदर्श परम्पराओं का दृढ़ता पूर्वक निर्वहन करते हुए अपने तेजोमय प्रभा मंडल से समूचे भारत एवं विश्व को प्रकाशित कर रहे हैं. आप दर्शन मात्र से ही सबको आनंदित एवं प्रफुल्लित कर देते हैं. ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व के धनी हैं आप. स्वामी श्री विश्वमित्र जी महाराज 2 जुलाई 2012 को लगभग 72 वर्ष की आयु में भौतिक चोला छोड परम धाम सिधार गए.